तब मैं 8 साल की थी, बहुत ही चंचल और शरारती। हम तीन भाई बहन थे और सब गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। दोनों भाई मुझसे बड़े थे और इसीलिए मैं घर में सबकी दुलारी थी। पापा एक छोटी सी फैक्ट्री में मजदूर थे लेकिन हमारा गुजारा जैसे तैसे चल जाता था। अपने घर की चटनी और पड़ोस से मांगी हुई छाछ से हम सब बहुत खुश रहते थे।
मुझे अच्छी तरह से याद है की दिवाली आने वाली थी और हम सब बच्चे अपने हाथों से सजावट का सामान बना रहे थे। मैं भी अपने नन्हे हाथों से मिटटी के टेढ़े मेढ़े दीये बना रही थी, तभी पापा एक चमचमाती साइकिल लेकर आँगन में घुसे। पापा के चेहरे पे एक अलग सी ही ख़ुशी थी, हम सब लपक कर साइकिल के पास पहुंचे और छू कर देखने लगे। पापा ने मुझे उठाया और साइकिल की गद्दी पे बिठाते हुए माँ की तरफ देखकर बोले, "फैक्ट्री के मालिक ने दिवाली बोनस में दी है मेरी मेहनत देखकर, पूरे 2000 रुपए की है"। वो दिवाली का दिन हमारी लिए बहुत ही खास बन चुका था, नई नवेली साइकिल को माँ ने खूब सजाया और मेरे हाथ से लेकर लाल रंग का धागा उसके हैंडल पे बांध दिया।
मैंने पापा को कभी इतना खुश नहीं देखा था, वो रोज़ सुबह उठकर अपनी नई साइकिल को सिद्दत से ऐसे साफ़ करते जैसे वो साइकिल नहीं कोई नायाब हीरा हो। पापा रोज़ राजा की तरह साइकिल पे सवार होकर फैक्ट्री जाने लगे ।
बरसात का मौसम शुरू हुआ और उसके साथ शुरू हुई हमारी हर साल वाली मुसीबत। छत से पानी टपकता और मच्छर हमारे घर को अपना घर बना लेते। मेरे दोनों भाई बीमार हो गए, सरकारी डॉक्टर ने बोला की बरसाती बुखार है जल्द ही ठीक हो जायेगा। उनका बुखार ठीक होते होते पूरा महीना ले गया और साथ ही ले गया हमारे घर की जमा पूंजी जो माँ जैसे तैसे बचाकर रखती थी।
एक रात बहुत देर तक बारिश हुई तोः मुझे टपकती छत ने भिगो दिया और सुबह तक बुखार ने अपने आगोश में ले लिया। माँ मुझे गोद में उठाकर सरकारी अस्पताल लेकर गयी। डॉक्टर ने दवा दी लेकिन बुखार कम नहीं हुआ, जब टेस्ट हुए तोः पता चला की मुझे डेंगू हुआ है। सरकारी डॉक्टर ने बोला की उनके पास डेंगू की पूरी दवा उपलब्ध नहीं है लेकिन माँ मुझे रोज़ गोद में उठा कर अस्पताल ले जाती और जो भी दवा मिलती ले आती। पापा चाह कर भी छुट्टी नहीं ले सकते थे क्योंकि हर छुट्टी का पैसा कटता था और हमे पैसों जरुरत थी, बहुत जरुरत थी।
पूरी दवाई न मिलने से मेरी हालत और बिगड़ती जा रही थी, एक दिन सरकारी डॉक्टर ने माँ से कहा, "अगर डेंगू का पूरा इलाज नहीं मिला तोः ये बच्ची मर जाएगी, इसको प्राइवेट अस्पताल में ले जाकर इंजेक्शन लगवाइए"।
उस दिन हमारे घर में अजीब सा सन्नाटा था, कोई किसी से बात नहीं कर रहा था लेकिन पापा मुझे गला लगा कर बस रोये जा रहे थे। मुझे पता ही नहीं चला की मुझे कब नींद आयी लेकिन जब उठी तोः एक सुन्दर सी नर्स मुस्कराते हुए मेरे सर पे हाथ फेर रही थी, मैं एक अच्छे से अस्पताल में थी।
पापा मुझे गोद में उठाकर घर वापस लाये, मैं ठीक होने लगी थी, लेकिन मुझे पापा की साइकिल कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। पापा एक दिन मेरे पास चारपाई पे बैठकर मेरा माथा देख रहे थे गरम है की नहीं तोः मैंने पूछा, "पापा, हमारी साइकिल कहाँ है?" पापा ने उदास होकर बोला, "जब मेरी गुड़िया अस्पताल में थी तोः कोई हमारी साइकिल चोरी करके ले गया"। मुझे बहुत दुःख हुआ, ये सुन कर मेरी आँखों में आंसू आ गए। मेरे आंसू पोंछते हुए पापा ने बोला, "कोई नहीं बेटा, मैं फिर से बहुत मेहनत करूँगा और अगली दिवाली पे हो सकता है मालिक फिर खुश होकर मुझे नई साइकिल दे दे"।
खैर, हमारी जिंदगी फिर से पटरी पे दौड़ने लगी, वो कहते हैं न की गरीब मर तोः सकता है पर रुक नहीं सकता।
मैं फिर से स्कूल जाने लगी और पहले की तरह खूब शरारत करने लगी। एक दिन मैं स्कूल से वापस आ रही थी कि अचानक मुझे एक अधेड़ उम्र का आदमी साइकिल पर आता हुआ दिखाई दिया, मैं उसको देखते ही उसकी तरफ भागी और उसकी साइकिल पकड़कर खड़ी हो गयी, मुझे मेरा लाल रंग का धागा उसके हैंडल पर बंधा हुआ दूर से ही दिख गया था।
वो आदमी लड़खड़ा कर रुका और चिल्लाया, "ऐ लड़की पागल है क्या, अभी चोट लग जाती तो?"। मैंने चीखकर उस आदमी से पूछा, "तुमने हमारी साइकिल क्यों चुराई?", वो आदमी और भी गुस्से में बोला, "बेवक़ूफ़ चुराई नहीं है, खरीदी है, पूरे 1500 रूपए में"। मैं वहीँ खड़ी रह गयी और उसे दूर जाते हुए देखती रही।
घर गयी तो माँ ने गले से लगाया और पूछा,"आज मेरी गुड़िया इतनी उदास क्यों है?" लेकिन मैंने कुछ नहीं बोला और पापा के आने का इंतज़ार करने लगी। जैसे ही पापा ने दरवाजा खोला, मैं भाग कर उनसे लिपट गयी और ज़ोर ज़ोर से रोने लगी, 8 साल की नन्ही सी उम्र में ही अचानक समझदार सी हो गयी थी, जैसे सब कुछ समझ सी गयी थी मैं, बस लिपट कर रोती रही और एक शब्द भी नहीं बोली। कच्ची उम्र में भी मैं समझ गयी थी की शायद मेरी चुप्पी मेरे पापा का स्वाभिमान बचा कर रख सकती है।
मुझे प्राइवेट अस्पताल ले जाने के लिए पापा ने अपनी जान से प्यारी साइकिल बेच दी थी और किसी को कुछ नहीं बताया था।
आज उस बात को 20 साल हो गए हैं I इन 20 सालों में सब रुक गया है। सरकारी अस्पताल में जाना रुक गया, पडोसी से छाछ मांगना रुक गया, वो छत का टपकता पानी रुक गया, पर नहीं रोक सकी तोः वो आंसू जो आज भी पापा और उनकी साइकिल को याद करके आते हैं...भर-भर के आते हैं.. घंटो तक आते हैं।