किसी भी समाज का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा महिला होती है|उन की मौजूदगी के बिना घर ,परिवार या समाज की कल्पना करना मुश्किल है| मगर हमारे देश की पुरातन सोच और संकीर्ण मानसिकता के चलते इस महत्वपूर्ण आबादी को सम्मान ओर प्राथमिकता कभी नहीं दी जाती है| इनकी जरूरते ओर ख्वाहिश हमेशा से नजरअंदाज कर दी जाती है|
महिला कार्यकर्ता सुचिता कर्मकार कहती है -"युद्ध या देवी आपदाओं में महिलाओं को सबसे ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ता है |कोरोना के कारण जहां परिवार के सदस्यों को एक छत के नीचे रहने का अवसर प्राप्त हुआ है ,वहीं महिलाओं का जीवन नकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ है| घरेलू महिला के काम का ना तो समय निश्चित ही नहीं उसके कार्य को श्रम की श्रेणी में स्वीकार किया जा रहा है| अब तो घर परिवार की हालत यह है कि उसके किए गए कार्य के प्रति किसी के मन में सम्मान की भावना भी नजर नहीं आती जा रही है | यह नंबर तो ऐसी तमाम आपदाओं पर भारी साबित हो रहा है| गांव शहर ग्रहणी या कामकाजी कोई भी महिला इस से सुरक्षित नहीं है| मौजूदा हालात पर सरकार को इस आबादी की सेहत और सुरक्षा पर ध्यान देना अपनी प्राथमिकता बनाना होगा"|
कोरोना के चलते कामवाली और दूसरे मददगारो की गैर मौजूदगी मे महिलाओं की मुसीबतें कई गुना बढ़ गई है|
एक महिला संगठन की प्रमुख विचारक जानकी नारायण कहती है-" इस लॉकडाउन का महीलाओ पर गंभीर असर होगा| देश के ग्रामीण इलाकों में पुरुष सदस्य कमाने के लिए बाहर राज्य में जाते हैं, तो उनकी वजह से उनकी वापस नहीं लौट पाने के कारण परिवार में बच्चों और बुजुर्गों की देखरेख और खानपान की जिम्मेदारी महिलाओं को निभानी पड़ेगी| राशन लाना होगा खाना खिलाना होगा |ग्रामीण इलाकों में तो महिलाओं को घर के कामकाज के साथ-साथ खेतों पर भी काम करना पड़ता है| इसका असर उनके स्वास्थ्य पर हो सकता है| देश में महिला की बड़ी आबादी पहले से ही कुपोषण का शिकार बन रही है ना उसको दौरान कुपोषण का स्तर तेजी से बढ़ा है |"
भारतीय समाज खासकर मध्यम वर्गीय ओर निम्नवर्गीय लोगों में पितृसत्तात्मक मानसिकता हावी होने की वजह से जब घर में यदि कोई हेल्पर मौजूद नहीं है तो घर की साफ सफाई किचन बच्चों की देखभाल सारा काम का जिम्मा महिलाओं का है |पुरुष इन सब काम को कर कर अपने आप को कमतर समझते हैं |ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इकोनामिक कोऑपरेशन एवं डेवलपमेंट की ओर से 2015 में एक सर्वे किया गया था ,उसके अनुसार भारतीय महिलाएं दूसरे देशों के मुकाबले रोजाना औसतन 6 घंटे ज्यादा ऐसे काम करती है ,जिनके एवज में उनको पैसे नहीं मिलते हैं,जबकि भारतीय पुरुषों से कामों में 1 घंटे से भी कम समय का खर्च करते हैं |
प्रोफेसर सेन गुप्ता कहते हैं कि-" सामान्य हालत में नौकर- चाकर ,माली ,ड्राइवर और बच्चों की आया की मौजूदगी की वजह से महिलाओं पर काम के बोझ का पता नहीं चलता, मगर अब इस समय मैं जब हमारे पास कोई हाउस हेल्प नहीं है तो पूरे काम का बोझ अकेले महिला पर आ गया है|"
हालांकि अब कामकाजी दंपतियों के मामले में पुरातन सोच बदल रही है लेकिन अभी ज्यादातर परिवारों में यही मानसिकता काम करती है| नतीजे इस लंबे लॉकडाउन में ज्यादातर महिलाएं कामकाज के बोझ तले पीसने पर मजबूर है |समाज विज्ञान के एक प्रोफेसर के अनुसार-" लॉकडाउन का एक लैंगिक पहलू भी है| जिस पर अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया है| ज्यादातर घरों में महिलाएं और पुरुषों के बीच काम का बंटवारा सामान नहीं है| पति-पत्नी दोनों घर के काम उठाने की स्थिति में होने के बावजूद पत्नी को अपेक्षाकृत ज्यादा बोझ उठाना पड़ता है| ऐसे में नौकरी पेशा महिलाओं पर तो दबाव दुगना हो गया है|
एक आईटी कंपनी में काम करने वाली महिला के शब्दों में-" यह समय बेहद मुश्किल है |घर से दफ्तर का काम करना पड़ रहा है| उसके बाद पति और दो बच्चों को समय पर खाना- पीना देना और दूसरे हजारों काम ऐसा लगता है ,कि मैं पागल हो जाऊंगी|"
यह महिला अकेली नहीं है देश की लाखों महिलाएं उनकी जैसी हालत से जूझ रही हैं| मल्टी टास्किंग और एक साथ कई भूमिका निभाना उन्हें धीरे-धीरे इतना व्यस्त कर रहा है कि कामकाजी महिलाओ को तो अपने व्यायाम और नीन्द के साथ भी समझौता करना पड़ रहा है |एक ही गति से एक ही समय में ऑफिस और बच्चों के स्कूल का घर पर प्रबंध करना, निश्चित रूप से आसान नहीं है| लॉक डाउन की इस लंबे समय में हुए एक सर्वे के अनुसार कामकाजी महिलाओं के अब सोने का समय औसतन केवल 5:50 घंटे ही बचा है, जो पहले औसतन 6:50 घंटे होता था|
कोरोनावायरस का असर ना केवल स्वास्थ्य पर हुआ है,बल्कि अर्थव्यवस्था और रोजगार के क्षेत्र में भी गिरावट देखने को मिली है| नौकरी की कटौती होने पर 10 में से 6 भारतीय महिलाओं का कहना है कि महामारी में पहले की तुलना में आज अपने कैरियर की संभावनाओं के बारे में 51% कम आशावादी महसूस करते हैं| कोविड-19 के इस दौर में घर की जिम्मेदारियां और ऑफिस के काम के बोझ महिलाओं पर इतना बढ़ गया है,कि वैश्विक स्तर पर 23% और भारत में तो लगभग 26% कामकाजी महिलाएं अपना काम छोड़ने का विचार बना रही है |क्योंकि भारत में महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वह परिवार को प्राथमिकता दें और इस प्राथमिकता की कीमत उन्हें अपने पेशेवर जीवन को छोड़कर चुकानी पड़ती है|
कामकाजी महिलाओं पर किए गए एक सर्वेक्षण के दौरान लगभग 40% महिलाओं ने कहा कि उन्होंने अपने नियोक्ता से पिछले 12 महीनों में गैर समावेशी व्यवहार का अनुभव किया है |जिससे उनके कैरियर पर काफी बुरा असर पड़ा है, महामारी के इस संकट के दौरान नियोक्ता ने उनके साथ प्रतिबद्धता नहीं दिखाते हुए काम और व्यक्तिगत घंटों के बीच स्पष्ट सीमा बनाने में असक्षमता जाहिर की है |नियोक्ता काम और काम की गुणवत्ता को देखने के बजाय पुरुषों द्वारा ऑफिस को ऑनलाइन दिए गए समय को अधिक महत्व देते हैं और उसी के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है| मगर अब नियोक्ताओं को समझना होगा स्कूलों के उचित मार्गदर्शन के अभाव में माताओं को अपने बच्चों की शिक्षा पर अधिक समय व्यतीत करने की आवश्यकता है, उनके वर्किंग हौर कम कर कर उन पर समय की प्रतिबद्धता कम करनी होगी ताकि महिलाओं को मानसिक परेशानियों का सामना ना करना पड़े| क्योंकि वर्तमान समय में हमारे समाज की स्थिति आर्थिक रूप से महिलाओं को सक्षम बनाने मैं सहयोगी नहीं है| महिलाओं को नौकरी परिवार और बच्चा सब कुछ एक साथ मिल पाना लगभग असंभव सा नजर आने लगा है |यदि उन्हें यह सब कुछ एक साथ मिल रहा है तो उसके एवज में उन्हें खुद के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के साथ समझौता करना ही होता है |
गत सितंबर माह में दो लाख पुरुषों के मुकाबले 8,65,000 महिलाओं ने अपनी नौकरी छोड़ दी |इससे समझा जा सकता है कि उनके ऊपर घर परिवार की देखभाल की जिम्मेदारी ज्यादा थी |
कुछ महिलाएं जो छोटी नौकरी या ब्यूटी पार्लर जैसे छोटे बिजनेस करके घर का खर्च चलाने में मदद करती थी, लेकिन कोरोनावायरस तो लगभग बेरोजगार हो गई है |अगर ऐसे में पति की भी नौकरी छुट गई है तो बच्चों की फीस तक का इंतजाम करना मुश्किल हो गया है |कोरोना काल में कमाई ना होने के चलते मध्यमवर्गीय परिवारों में कलह की स्थिति उत्पन्न हो गई है |
कोरोना काल मे पुर्व में बच्चों की स्कूल जाने और घर के पुरुष सदस्यों के अपने अपने कार्यों पर चले जाने के बाद कुछ समय तो महिलाएं स्वतंत्रता पूर्वक जीवन व्यतीत करती थी| इसी दौरान अपने मानसिक तनाव को कम करने के साथ साथ अपनी शारीरिक थकान को भी कम कर लेती थी| आस पड़ोस के दोस्तों के साथ या कार्यस्थल पर गपशप विचार विमर्श से अपने आपको मानसिक और शारीरिक रूप से संतुलित रख पाती थी| मगर आजकल घरों में बंद होने से उनको यह अवसर नहीं मिलता है |
यूएन वुमन में डिप्टी एक्जीक्यूटिव अनीता भाटिया कहती हैं ,कि -"हमने पिछले 25 वर्षों में महिलाओं की उन्नति के लिए जो कुछ भी काम किया है वह इस लॉकडाउन में हम 1 साल में खो सकते हैं |यानी कि महिलाएं अपनी वर्तमान स्थिति से 25 साल पीछे जा सकती हैं| इस समय महिलाओं पर घर परिवार की देखभाल का जो भार बढ़ गया है उससे 1950 के समय की लैंगिक रुडीओ को फिर से कायम होने का का खतरा पैदा हो गया है|